samanvay
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क्यूँ आज भी समाज़ मे घुट-घुट के जी रही हैं बेटियाँ?
पाँवों मे पायल नही, बेडी पहन कर जी रही है बेटियाँ !
धिकार है समाज को जहाँ,बैश्या बन जी रही है बेटियाँ,
हमने कभी उन्हे देवी कहा, दासीबन जी रही हैं बेटियाँ !!
समाज़ के रछक भछक बने फ़िरभी जी रही हैं बेटियाँ,
भाई-बाप ही आनर किलिंग करे,कहाँ जी रही है बेटियाँ?
अभिषाप रुकेगा नही ,क्योंकि होठों को सी रही है बेटियाँ,
घर बाहर बोलने की दो इज़ाज़त,अबलानही रही है बेटिया!!
समाज के जिस अभिषाप का पुरुष उत्तरदायी है हमेशा,
परिवार के सममान को क्यूं गले लगा जी रही है बेटिया!!
बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७
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